आज के युग में धर्म:-
हम उस देश में रहते हैं,जिसके कण-कण में धर्म मौजूद है और मानवीय चेतना से परिपूर्ण लोग उसे प्रत्येक क्षण महसूस करने के साथ अपनी दिनचर्या का पालन करते हैं...विद्वानों ने धर्म को अपने अपने मत और मान्यतों के हिसाब से परिभाषित किया है. धर्म क्या है ये अपने आप में इतना विराट है कि जितना ये ब्रहांड. इसलिए धर्म को किसी परिभाषा में बांधना उचित नहीं लगता. हां, धर्म को समझा जा सकता है जिसे जानना, एक तरह से भगवान को जानने जैसा है और इसके लिए सिर्फ भाव ( सद्भाव ) की जरूरत है और कुछ विशेष प्रयोजन और मेहनत नहीं करनी पड़ती. धर्म के भीतर दम, दान, संयम, ज्ञान, विज्ञान, त्याग, समर्पण, समेत अनगिनत विषय समाये हुए हैं...
धर्म हमारी धरती से भी पुराना है, सनातन हिंदू मान्यताओं के मुताबिक धरती माता पर जो कुछ वजन टिका है वो धर्म की धुरी पर ही टिका है. सतयुग से लेकर कलयुग के वर्तमान चरण तक धर्म ही है, जिसके जरिये निकली तपस्या का फल मानव जाति का संरक्षण कर रहा है. धर्म को शब्दों में बांधने के बजाये उसे महापुरुषों की जीवनी से समझना और फिर उसे अपने जीवन में उतारने का ही मूल्य है वरना धर्म जैसे संवेदनशील विषय पर कुछ लिखना आसान नहीं होता क्योंकि सद्पुरुषों ने भी अपने समय में बहुत कष्ट के साथ अपना जीवन बिताया लेकिन धर्म नहीं छोड़ा.धर्म कोई सामान नहीं है कि जिसे जब चाहे पकड़ा, जब मन आया छोड़ दिया.इसलिए धर्म को भगवान की तरह मानकर हमें अपनी हर सांस परमार्थ के काम में लगानी चाहिए.
धर्म में अगर ‘सार’ शब्द जोड़ दें तो ये कुछ महानुभावों को अटपटा लग सकता है लेकिन ऐसा करने से उसे समझने में और आसानी होगी.गोस्वामी तुलसीदास जी ने अपनी रचनाओं में धर्म का अद्भुत वर्णन किया है, वहीं धर्मसार शब्द का प्रयोग उन्होने श्रीरामचरित मानस के अनगिनत प्रसंगों में किया है. धर्म का अर्थ ही शील धारण करना, यानि अपने अच्छे गुणों को बढ़ाना, तभी भविष्य में आप अपना नाम अमर कर सकते हैं क्योंकि ऐसे तो न जाने कितने मनुष्य धरती पर पैदा हुए और निर्धारित उम्र बीतने के बाद मर गए लेकिन अमर वही हुआ जिसने अपने धर्म का पालन करते हुए परमार्थ का काम किया. आपने किसी दोहे का ये हिस्सा जरूर सुना होगा परमारथ के कारने साधुन धरा शरीर. तुलसी बाबा ने मानस में लिखा है कि “ समुझब कहब करब तुम्ह जोई...धरम सारु जग होइहि सोई...’’ अर्थात धर्म को धारण करने वाला ही धुरंधर होता है भगवान राम के वनगमन के बाद जो भरत जी का आचरण है उसके आगे वशिष्ठ जी ऐसे मुनि की बुद्धि भरत जी के वस में हो जाती है और मुनिश्रेष्ठ कहते हैं कि हे भरत – जो तुम समझोगे , जो कहोगे और जो करोगे , वही धर्म होगा... वही धर्म का सार होगा. इसे आम के फल के उदाहरण से समझने की कोशिश करते हैं, आम के फल में तीन चीजें हैं छिलका, गुठली और रस ये तीनों फल के लिए आवश्यक है छिलके से फल सुरक्षित रहता है गंदा नहीं हो पाता, गुठली के द्वारा उसके जन्म की परंपरा बनी रहती है, गुठली जमीन में लगा दीजिए, सही सेवा करने पर आम का वृक्ष खड़ा गो जाएगा, और रस तो महत्वपूर्ण है ही. यानि आम को खाने वाला अगर गुठली और छिलके को भी खा ले तो आप उसे क्या कहेंगे, बस ये न करके सिर्फ रस पर ध्यान देने का जो विवेक है वो धर्म से आता है. भरत जी के लिए सूर्यवंश की पुरोहिती स्वीकार करने वाले गुरु वशिष्ठ जी ने जो कहा उसका अर्थ ये था कि अभी तक उन्होने जो कुछ किया था उससे उन्होने धर्म को समझा था, लेकिन भरत अपने शील-गुण और आचरण की वजह से धर्मसार हो गए.पहले भरत जी और वशिष्ठ जी की दृष्टियों में बड़ा मतभेद था लेकिन जब भरत जी ने अपने आचरण से धर्म को ही धारण कर लिया तो दोनो की दृष्टि एक हो गई. आगे भरत जी जब भाई राम से मिलने जाते हैं तो कहते हैं कि महाराज अब कीजिए सोई.. सब कर धरम सहित हित होई... यानि धर्म का आचरण ही आगे चलकर रामराज्य की स्थापना का मूलमंत्र बनता है ... धर्म का एक मंत्र भी आपने सुना होगा धर्मो रक्षति रक्षित: इसका विस्तार फिर कभी होगा.
धर्म को समझना आसान भी है और मुश्किल भी रहीम दास जी के एक दोहे से अपने लेख को विराम देना चाहूंगा, देखिए कितनी गहराई छुपी है इस दोहे में – रहिमन बात अगम्य की... कहन सुनन की नाहिं, जानत है ते कहत नाहि, कहत है ते जानत नाहिं...
((जारी))
हम उस देश में रहते हैं,जिसके कण-कण में धर्म मौजूद है और मानवीय चेतना से परिपूर्ण लोग उसे प्रत्येक क्षण महसूस करने के साथ अपनी दिनचर्या का पालन करते हैं...विद्वानों ने धर्म को अपने अपने मत और मान्यतों के हिसाब से परिभाषित किया है. धर्म क्या है ये अपने आप में इतना विराट है कि जितना ये ब्रहांड. इसलिए धर्म को किसी परिभाषा में बांधना उचित नहीं लगता. हां, धर्म को समझा जा सकता है जिसे जानना, एक तरह से भगवान को जानने जैसा है और इसके लिए सिर्फ भाव ( सद्भाव ) की जरूरत है और कुछ विशेष प्रयोजन और मेहनत नहीं करनी पड़ती. धर्म के भीतर दम, दान, संयम, ज्ञान, विज्ञान, त्याग, समर्पण, समेत अनगिनत विषय समाये हुए हैं...
धर्म हमारी धरती से भी पुराना है, सनातन हिंदू मान्यताओं के मुताबिक धरती माता पर जो कुछ वजन टिका है वो धर्म की धुरी पर ही टिका है. सतयुग से लेकर कलयुग के वर्तमान चरण तक धर्म ही है, जिसके जरिये निकली तपस्या का फल मानव जाति का संरक्षण कर रहा है. धर्म को शब्दों में बांधने के बजाये उसे महापुरुषों की जीवनी से समझना और फिर उसे अपने जीवन में उतारने का ही मूल्य है वरना धर्म जैसे संवेदनशील विषय पर कुछ लिखना आसान नहीं होता क्योंकि सद्पुरुषों ने भी अपने समय में बहुत कष्ट के साथ अपना जीवन बिताया लेकिन धर्म नहीं छोड़ा.धर्म कोई सामान नहीं है कि जिसे जब चाहे पकड़ा, जब मन आया छोड़ दिया.इसलिए धर्म को भगवान की तरह मानकर हमें अपनी हर सांस परमार्थ के काम में लगानी चाहिए.
धर्म में अगर ‘सार’ शब्द जोड़ दें तो ये कुछ महानुभावों को अटपटा लग सकता है लेकिन ऐसा करने से उसे समझने में और आसानी होगी.गोस्वामी तुलसीदास जी ने अपनी रचनाओं में धर्म का अद्भुत वर्णन किया है, वहीं धर्मसार शब्द का प्रयोग उन्होने श्रीरामचरित मानस के अनगिनत प्रसंगों में किया है. धर्म का अर्थ ही शील धारण करना, यानि अपने अच्छे गुणों को बढ़ाना, तभी भविष्य में आप अपना नाम अमर कर सकते हैं क्योंकि ऐसे तो न जाने कितने मनुष्य धरती पर पैदा हुए और निर्धारित उम्र बीतने के बाद मर गए लेकिन अमर वही हुआ जिसने अपने धर्म का पालन करते हुए परमार्थ का काम किया. आपने किसी दोहे का ये हिस्सा जरूर सुना होगा परमारथ के कारने साधुन धरा शरीर. तुलसी बाबा ने मानस में लिखा है कि “ समुझब कहब करब तुम्ह जोई...धरम सारु जग होइहि सोई...’’ अर्थात धर्म को धारण करने वाला ही धुरंधर होता है भगवान राम के वनगमन के बाद जो भरत जी का आचरण है उसके आगे वशिष्ठ जी ऐसे मुनि की बुद्धि भरत जी के वस में हो जाती है और मुनिश्रेष्ठ कहते हैं कि हे भरत – जो तुम समझोगे , जो कहोगे और जो करोगे , वही धर्म होगा... वही धर्म का सार होगा. इसे आम के फल के उदाहरण से समझने की कोशिश करते हैं, आम के फल में तीन चीजें हैं छिलका, गुठली और रस ये तीनों फल के लिए आवश्यक है छिलके से फल सुरक्षित रहता है गंदा नहीं हो पाता, गुठली के द्वारा उसके जन्म की परंपरा बनी रहती है, गुठली जमीन में लगा दीजिए, सही सेवा करने पर आम का वृक्ष खड़ा गो जाएगा, और रस तो महत्वपूर्ण है ही. यानि आम को खाने वाला अगर गुठली और छिलके को भी खा ले तो आप उसे क्या कहेंगे, बस ये न करके सिर्फ रस पर ध्यान देने का जो विवेक है वो धर्म से आता है. भरत जी के लिए सूर्यवंश की पुरोहिती स्वीकार करने वाले गुरु वशिष्ठ जी ने जो कहा उसका अर्थ ये था कि अभी तक उन्होने जो कुछ किया था उससे उन्होने धर्म को समझा था, लेकिन भरत अपने शील-गुण और आचरण की वजह से धर्मसार हो गए.पहले भरत जी और वशिष्ठ जी की दृष्टियों में बड़ा मतभेद था लेकिन जब भरत जी ने अपने आचरण से धर्म को ही धारण कर लिया तो दोनो की दृष्टि एक हो गई. आगे भरत जी जब भाई राम से मिलने जाते हैं तो कहते हैं कि महाराज अब कीजिए सोई.. सब कर धरम सहित हित होई... यानि धर्म का आचरण ही आगे चलकर रामराज्य की स्थापना का मूलमंत्र बनता है ... धर्म का एक मंत्र भी आपने सुना होगा धर्मो रक्षति रक्षित: इसका विस्तार फिर कभी होगा.
धर्म को समझना आसान भी है और मुश्किल भी रहीम दास जी के एक दोहे से अपने लेख को विराम देना चाहूंगा, देखिए कितनी गहराई छुपी है इस दोहे में – रहिमन बात अगम्य की... कहन सुनन की नाहिं, जानत है ते कहत नाहि, कहत है ते जानत नाहिं...
((जारी))